Pages

वैदिकयज्ञानां विवादितप्रसंगा:।।।



सनातन परम्‍परायां वेदानां महत्‍वं भगवतस्‍थानके अस्ति।
वयं सर्वे भारतीया: वेदादिग्रन्‍थान साक्षात् र्इश्‍वर: एव मन्‍यन्‍ते।
वेदग्रन्‍था: सर्वदा जगतकल्‍याणविषयका: एव सन्ति एतत् सवै: अपि अंगीकृयते।

किन्‍तु प्राय: पाश्‍चात्‍यविद्वान्‍सानां वेदविषये अति दुराग्रह: दृष्‍यते।
ते सर्वदा वेदग्रन्‍थान सामान्‍यलौकिकग्रन्‍था: एव मन्‍यन्‍ते। तथा यथा-कथंचित् अपि एतेषां ग्रन्‍थानां अनादरं कर्तुं उद्युक्‍ता: भवन्ति।
अस्मिन् क्रमे एव वेदे  वर्णितानां यज्ञानां विषयेपि तेषां मत्‍तव्‍यहार: दृष्‍यते।
ते वैदिकयज्ञविषये बहु किमपि अनर्गलप्रलाप: कुर्वन्ति।
तेषां उक्ति: यत् वैदिकयज्ञा: हिंसाप्रधाना: सन्ति।
ते केचन् उदाहरणा: अपि ददति यत् वैदिकयज्ञे बलिविधानं, पुनस्‍च अश्‍वमेध आदि यज्ञे तु साक्षात् मेधशब्‍द: हिंसापरक एव। पुन: आलभन इत्‍यपि शब्‍द: हिंसापरक एव।
एवं विधा वेदयज्ञेषु सर्वत्र हिंसा एव अस्ति एष: कुविचार: प्रसारित: अस्ति एतै: पाश्‍चात्‍य विद्वान्‍सै:।

किन्‍तु ते वैदेशिका: वेदानां पूर्णअनुशीलनं न कृतवन्‍त: केवलं स्‍वल्‍पज्ञानमेव प्राप्‍य मिथ्‍यालापं कृतवन्‍त:।
तेषां भ्रामकतथ्‍यानां अत्र मया अनावरणं भवति। एतान तथ्‍यान ज्ञात्‍वा भवन्‍त: स्‍वयमेव वैदिकानां दुर्मति: ज्ञाष्‍यन्ति।

प्रथममतं - बलि शब्‍द: हिंसार्थक: इति तेषां प्रथम: कुतर्क:।

निराकरणम्- बलि शब्‍दस्‍य शब्‍दकोशे आहुति, भेंट, चढावा, भोज्‍यपदार्थानाम् अर्पणम् इति अपि अर्थ: दत्‍त: अस्ति, अत: केवलं बलि शब्‍दस्‍य हिंसापरक अर्थ: एव उचितं न भाति। पुनश्‍च श्राद्ध कर्मेषु काकबलि, गोबलि, पिपीलिकाबलि आदि बलिविधानम् अस्ति चेत् यदि बलि शब्‍दस्‍य हिंसापरक अर्थ: स्‍वीकृयते तर्हि श्राद्धकर्मेषु अपि हिंसा आगच्‍छति।

द्वि‍तीयमतं- अश्‍वमेध आदि यज्ञेषु मेधशब्‍दप्रयोगेनेव हिंसा प्रतीयते।

निराकरणम्- मेध इति शब्‍दस्‍य कोशे ''मेधा हिंसनयो: संगमे च इति'' व्‍युत्‍पत्ति: अस्ति। अर्थात् मेधासंवर्धनं, हिंसा अपि च एकीकरण, संगतिकरणं वा इत्‍यपि अर्थ भवति चेत् केवलं हिंसा एव स्‍वीक्रियते तर्हि दोष: आगच्‍छति। अन्‍यअर्था: स्‍वीक्रियते तर्हि विसंगति: न भवति।

तृतीयमतं-  आलभन इति शब्‍दप्रयोगेण वैदिकयज्ञा: हिंसापरकआसन् इति ।

निराकरणं- आलभन शब्‍दस्‍य अन्‍ये अर्था: क्रमश: स्‍पर्शं, प्राप्ति: चापि अस्ति अत: यदि एतेषाम् प्रयोग: क्रियते चेत् वेदस्‍य वेदत्‍वं रक्षते।  पुनश्‍च ''ब्रह्मणे ब्राह्मणं आलभेत। क्षत्राय राजन्‍यं आलभेत'' इति वाक्‍यस्‍य अनर्थ: भविष्‍यति यदि आलभन शब्‍दस्‍य ग्रहणं हिंसार्थे क्रियते तर्हि । अ‍त: स: अनर्थ: न आगच्‍छेत अस्‍य कृते आलभन शब्‍दस्‍य प्रयोग: हिंसार्थे न क्रियते।

पुनश्‍च वैदिकयज्ञानां कृते अध्‍वर इत्‍यपि पर्याय दत्‍तमस्ति यस्‍य अर्थ: एव हिेंसाविहीन:, अहिंसक:
वा इति अस्ति।
तर्हि यदि वैदिकयज्ञानां अध्‍वर इत्‍यपि संज्ञा अस्ति चेत् हिेंसकप्रवित्‍ते: निवारणं स्‍वत: एव भवति।
अत: इति प्रमाण्‍यते यत् वैदिकयज्ञा: सर्वथा हिंसाविहीना: एव भवन्ति।
वैदेशिकानां मतं तु केवलं वेदानां महिमाया: ह्रास: कर्तुमेवासीत्।।

एष: लेख आचार्य श्रीरामशर्मा कृत ऋग्‍वेद संहिताया: भूमिकाभागात साभार गृहीत: अस्ति।
अस्‍य लेखस्‍योपरि भवतां विचाराणां स्‍वागतम् अस्ति।।

भवदीय: - आनन्‍द:
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

7 Response to "वैदिकयज्ञानां विवादितप्रसंगा:।।।"

  1. Satyajeetprakash Says:
    April 27, 2010 at 10:03 AM

    त्वदीयं वस्तु गोविदं तुभ्यमेव समर्पयामि.

  2. परमजीत सिँह बाली says:
    April 27, 2010 at 11:43 AM

    अति सुन्दरं आलेखं।

  3. डॉ.कविता वाचक्नवी Dr.Kavita Vachaknavee says:
    April 27, 2010 at 1:19 PM

    पाश्चात्य जगत् की वेद-विषयक ऐसी अवधारणाओं का एक बड़ा कारण बहुधा हमारे यहाँ हुए अनर्गल भाष्य भी ही हैं।
    सायण, महीधर या उव्वट जैसे तथाकथित भाष्य वेदों को और भला क्या प्रतिपादित करवाते हैं? यही सब तो।
    अनार्ष पद्धति से किए गए देवभाषा के भाष्यों के लिए यदि संस्कृत वह भी अनार्ष पद्धति के व्याकरण का आश्रय लिया जाएगा तो इसमें दोष हमारा अधिक है। अष्टाध्यायी, महाभाष्य या काशिका वाली परिपाटी से महर्षि दयानन्द ने जो स्थान वेदों को दिलवाया उसे पढ़कर तो किसी ने वेदों को गडरियों के गीत, या हिंसाश्रयी, या अनर्गल किसी सम्बोधन से परिभाषित नहीं किया।

  4. DEEPAK SHARMA KAPRUWAN says:
    April 27, 2010 at 10:36 PM

    प्रिय मित्र ,
    मैंने आपका संस्कृत में ब्लॉग देखा मुझको बहुत ही अच्छा लगा.... और में ये दावे से कह सकता हूँ ...की आपका ये प्रयास बहुत ही सफल होगा और साथ-साथ में पाठको को संस्कृत का ज्ञान भी होगा ... आज संस्कृत भाषा न जाने किस दौर में कहाँ खोती जा रही है? हालांकि ये सभी भाषायों की जननी है... पर अगर आप जैसे मित्रों के प्रयास से खूब प्रचार में आ सकता है...और वह कोशिश आप कर भी रहे है.... लेकिन मित्र एक बात कहना चाहता हूँ ...की आपने जो संकृत में आलेख लिखे है, अगर उसके साथ-साथ उनका हिंदी में भी अनुवाद हो जाए तो चार चाँद लग जाए.... इस से सबसे ज्यादा ये फायदा ये होगा की संस्कृत न जानने वाले भी इस ब्लॉग को सरलता से पड सकेंगे और उनको ये भी ज्ञान हो जाएगा की संस्कृत के महत्वता क्या है ?हम जैसे लोग संस्कृत तो बहुत थोडा जानते है, यदि हिंदी अनुवाद हो जाए तो संस्कृत को धीरे समझने में आसानी होगी और फिर संकृत का ज्ञान भी हो जाएगा ... मैं ये बात बहुत ही अच्छी तरह से जानता हूँ ..की पहले संस्कृत में और फिर उसका अनुवाद करना सरल नहीं है क्योंकि उस से काम और भी बढ जाता है... एक लेख लिखने के साथ-साथ उसका अनुवाद करना समय को बदा सकता है... पर मित्र अगर हम संस्कृत का प्रचार प्रसार करना चाहते है तो उसको जन सामान्य की भाषा बनाना ही पड़ेगा... आगे मित्र आपकी मर्जी मैंने तो अपनी बात रखी है अब उसको लेकर चलना या नहीं, तो आपका काम है ... बुरा मत मानना ...मित्र मुझको ठीक लगा तो मैंने यह कह दिया है... और हाँ एक बार फिर से आपको बहुत बधाई देता हूँ इस ब्लॉग के लिए की आपने बहुत ही अच्छा प्रयास किया है

  5. आनन्‍द पाण्‍डेय says:
    April 28, 2010 at 1:00 AM

    आप सब की टिप्‍पणियों के लिये धन्‍यवाद।

    दीपक जी आपके सुझाव के लिये आभार।

    मैं आपकी उक्ति को चरितार्थ करने का प्रयास करूंगा।


    आ्गे भी अपने अमूल्‍य विचार और प्‍यार देते रहें।


    धन्‍यवाद

  6. डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) says:
    April 28, 2010 at 10:33 PM

    प्रिय भाई आनंद! आपका प्रयास साधुवाद के योग्य है। आप जैसे लोगों का प्रयास संस्कृत और भारतीय संस्कृति दोनो को उनका उच्चतम स्थान दिलवाएगा, ईश्वर आपको इस सत्कार्य के लिए अधिकतम सामर्थ्य प्रदान करे। हम सब आपके साथ हैं यथाशीघ्र मैं भी आपके आलेख पर संस्कृत में टिप्पणी कर सकूंगा ऐसा प्रयत्न है। पुनः साधुवाद स्वीकारें। मेरा संपर्क ०९२२४९६५५५ है यदि कभी मुंबई आगमन हो तो सूचित करें हम साथ समय बिताएंगे आप हमारे मेहमान रहेंगे।
    डॉ.रूपेश श्रीवास्तव

  7. आनन्‍द पाण्‍डेय says:
    April 29, 2010 at 4:03 AM

    आदरणीय रूपेश भाई जी

    आप का बहुत धन्‍यवाद, इसलिये भी कि आप मेरे संस्‍कृत के प्रसार के प्रयास में सहयोग दे रहे हैं और इसलिये भी कि आप ने मुझे अपना आतिथ्‍य स्‍वीकार करने का अवसर दिया है।


    कभी मुंबई आया तो आपके दर्शन जरूर होंगे।

Type in Hindi (Press Ctrl+g to toggle between English and Hindi)

Post a Comment